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प्रकाशन हेतु (28 नवम्बर महात्मा फुले का 189 वीं परिनिर्वाण दिवस) महात्मा फुले ब्रह्मणों के नहीं ब्रह्मणवाद के विरूद्ध थे सामान्यतः सामाजिक शैक्षणिक क्रान्ति के जनक महात्मा जोतीराव फुले की जीवनी उनके कार्यों की बात आती है, तो यह अवधारणा बनी हुई है, कि फुले तो ब्रह्मणों के विरूद्ध थे, जबकि फुले की समझ स्पष्ट थी, उनके किसी भी ग्रन्थ में, उनके बारे में लिखे गये किसी भी साहित्य में ब्रह्मणों के विरूद्ध हो, वास्तविकता यह कि फुले ब्रह्मणवाद, पोंगा पंडितवाद, अवैज्ञानिक, तर्क, साहित्य, स्वरूप, तथाकथित दैववाद, अशिक्षा, अंधविश्वास, अश्प्रश्यता, असमानता, भेदभाव, कुरीतियाँ, कर्मकाण्ड मूर्तिपूजा, ढोंग, बेईमानी, भृष्टाचार, महिलाओं की दासता, नारी का अपमानजनक जीवन, आदि आदि बुराईयों के विरूद्ध उन्होने कमर कसली थी, और लिखने बोलने के किसी भी माध्यम से उन्होंने मानवता, विज्ञानवाद, सबको निशुल्क और रोजगार पूरक शिक्षा, स्वास्थ्य, सहकार, न्याय, ईमानदारी, सदाचार, परोपकार, जैसे मानव जीवन को सहज, सरल, रूप से जीने के लिए सम्पूर्ण जीवन न्योछावर कर दिया था उनके साहित्य का अध्यन करने से ज्ञात होता है कि महात्मा फुले की मिशन में सभी जाति, धर्म वर्ण के लोगों का उनके साहित्य का अध्यन करने से ज्ञात होता है कि महात्मा फुले की मिशन में सभी जाति, धर्म वर्ण के लोगों का योगदान है। बचपन में उनका साथ मुस्लिम गफ्फार बेग, फातिमा शेख, क्रिश्च्यिन, लिजिट साहेब सनातनी ब्राह्यमण सदाशिव बल्लाल गोवंडे, मोरोपंत विट्ठल वालवेकर, सखाराम यशवंत पराजये, वासुदेव, बलवंत पड़के, लोकमान्य तिलक, न्यायमूर्ति माधव, गोविन्द रानडे, बालशास्त्री जांभेकर, गोपालहरि देशमुख, आदि के साथ जीवन की अनेक घटनाऐं एक दुसरे के सहयोगी रहेफुले कट्टरता पूर्वक मानवतावाद की मिशन पूरा करने में जुटे रहे, उन्होंने कभी समझोता करके हार नहीं मानी, किन्तु उनके अनेक परिचितों ने समय के साथ समझोता करके घुटने टेक दिये थे। एक उदाहरण है कि:दिनांक 4 अक्टूबर 1890 को पुणे की "पंचकोट मिशन" नामक ईसाई संस्था के सामरोह में पुणे के संभ्रात ब्राह्मण उपस्थित थे, उस समारोह में उस्थित ब्राह्मणों ने ईसाईयों की बनाई हुई, चाय पी, इसलिए कट्टरपंथियों ने उनको बहिष्कृत किया उनके लोकमान्य तिलक और माधव गोविन्द रानडे और तिलक ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया तिलक जी ने चाय पीने के बाद काशी जाकर प्रायश्चित किये जाने का प्रमाणपत्र प्रस्तुत किया। अन्य आठ लोगों ने दोष निवारर्णाथ प्रायश्ति के लिये आवेदन कियालोकमान्य तिलक चिरोल मुकदमों के मामले में इंग्लेण्ड गये थे, लोटने पर उन्होने सागरपार गमन का सन् 1919 में प्रायश्चित किया । राजा राममोहन राय आर्य समाज सुधारक माने जाते है, उन्होने नियम ही बनाया था, कि ग्रामों समाज के धर्म प्रचारक ब्राहम्ण ही होने चाहिए इन उदाहरणों से पता चलेगा कि उस समय के लगभग सभी समाज सुधारक नेताओं ने बहिष्कार के आगे गर्दने झुकाई थी। किन्तु केवल जोतीराव ही ऐसे नेता थे जिन्होनें बहिष्कार की रात्तीभर भी चिंता नहीं की । वे झुकने इस प्रथा को समाप्त कर देना चाहते थे।